बुरा वक्त टोनों की शक्ल में हमारे घर आया।
आई को सोने में जड़ी मूँगे की अँगूठी पहनाना जरूरी माना गया। दिवाकर पंडित के
चार साल तक पीछे पड़ने पर, आई ने अपनी शादी में मिले कान के फूलों को बेच कर
अँगूठी बनवाई। उस दिन, मैं भी आई के साथ नागपुर गया था, उसके कान फूल बेचने और
फिर एक हफ्ते बाद अँगूठी लेने। आई ने सुनार के हाथ में कान फूल देने से पहले,
दुकान में टँगे शीशे में अपने को देखते हुए कानफूल अपने कानों से सटाए थे और
तुरंत नकार में सिर हिलाते हुए उन कान फूलों को सुनार की हथेली में उलीच दिया
था। आई को सुंदर लगने से ज्यादा बाबा की परवाह सता रही थी, क्योंकि उस दोपहर
बस से गाँव वापस लौटते वक्त, आई ने मेरे अधखाए केले में से एक टुकड़ा माँग कर
खाया था और गहरी साँस भरकर बोली थी - "अब इसी का भरोसा है बाबू, दिवाकर पंडित
का मानें तो, मेरे अँगूठी पहनने से तेरे बाबा का कष्ट कम हो जाएगा।"
"क्या अँगूठी पहनने से कापुस (कपास) बढ़िया उगने लगेगा आई?" मैंने आई से पूछा
था क्योंकि गाँव के सब जन आपस में बात करते थे, कि बाबा के सारे कष्ट कापुस
ठीक से न उगने से पैदा हुए हैं, मतलब - सारी परेशानियों की जड़ में वही कापुस
था, बाद में बाकी बातें बढ़ उससे जुड़ती चली गई। बाकी बढ़ने वाली बातों में,
बाबा को खाँसी का न जाने वाले रोग का लगना था, मेरी प्यारी गाय काली का दूसरे
किसी गाँव में बेचा जाना था, और दीदी (जो मुझसे छह साल बड़ी थी) का ग्यारहवीं
की पढ़ाई को छोड़ घर पर लौट आना भी था। हमारे गाँव में हाईस्कूल नहीं था
इसीलिए दीदी चिंचोली में बुआ के घर रहकर पढ़ती थी, मगर उसकी पढ़ाई का खर्चा
बाबा देते थे।
दो साल से, जबसे बाबा ज्यादा परेशान रहने लगे थे वो दीदी को पैसा नहीं भेज पा
रहे थे। पता नहीं, दीदी को इसके बाद क्या सूझा कि वह एक दिन बुआ को यह बता
बाबा याद कर रहे हैं, चिंचोली से गाँव तक आने वाली बस पकड़ घर लौट आई! हम सब
आश्चर्य से भरे घर के बाहर चले आए जब हमें दीदी की पुकार सुनाई पड़ी, आई ने
दीदी का हाथ बहुत धीरे से पकड़ उसका बैग अपने हाथ में लेकर पूछा था, "कैसे,
क्यों आ गई, अचानक?" दीदी ने बाबा को देखते हुए कहा था, बहुत लाड़ से, (वह
बाबा को और बाबा उसे बहुत लाड़ करते थे, इतना कि कई बार मैं जल उठता था)
"बाबा, पढ़ाई खत्म है, छुट्टियाँ लग गई।" कितना अजीब था बाबा ने उससे पलट कर
नहीं पूछा साल के बीच में छुट्टियाँ कैसे लग गई तेरी? बल्कि उसका जवाब सुन न
वे खुश हुए, न दुखी, घर के बाहर वाले अहाते में बैठ सिर झुकाए जमीन ताकते रहे।
दीदी का यूँ लौट आना बाबा या आई को अनहोनी नहीं लगी बल्कि दीदी का रोज वहाँ
होना हम सब की जिंदगी में ऐसे समा गया, जैसे दीदी कभी हमें छोड़ यहाँ से
चिंचोली गई ही नहीं थी।
"प्रकाश, मैं तो उसी दिन आने वाली थी रे, जिस दिन मेरे कमरे की खिड़की पर रखा
मुँह देखने वाला आईना, नीचे गिर कर टूट गया था। आईने के टूटते ही, मुझे सबसे
पहले बाबा की याद आई थी, और मैं समझ गई थी, अब मुझे लौटना ही होगा। वो तो मेरे
कपड़े भीगे थे। उसी दिन मैंने उन्हें धो कर सूखने को डाला था, इसीलिए दो दिन
की देरी हो गई।" आई की अँगूठी दीदी के घर लौट आने के बाद ही बनवाई गई थी और आई
को ऐसा करने के लिए दीदी ने ही मजबूर किया था। दीदी ने ठीक ही किया था,
क्योंकि नागपुर से लौटने के बाद अँगूठी पहनी आई, कुछ निश्चिंत दिखती थी। बाबा
की खाँसी में आ रही लगातार कमी, भी उसकी निश्चिंतता बढ़ा रही थी, और बाबा का
अब घर के बाहर वाले जामुन के पेड़ के नीचे बैठ, अपने बचपन के मित्रों से बात
करना बड़ी अच्छी बात थी।
मैं उनके आसपास ही मंडराता रहता था। वहीं मैंने उनके बचपन के मित्र दत्ता
पाटिल, हीरामन शिडे, ढोंढू सावंत को बारिश न होने की बातें, सरकारी मुआवजा और
कर्ज की बातें और कापुस बेहतर उगाने की तकनीकों के बारे में भी बातें करते
सुना था। अपने बचपन के मित्रों से इस तरह बात करने पर बाबा की हिम्मत कुछ बढ़ी
हुई दिखलाई पड़ती थी, दीदी ने आई से इस बारे में एक दिन कहा भी था, "आई,
दिवाकर पंडित का बताया उपाय तो कुछ रंग ला रहा है। बाबा का चेहरा तो देख, अब
उतना काला भी नहीं लग रहा है। है न?' हाँ, आई ने उसी दबी हुई खुशी के साथ कहा
था, जिसे देखने की हमें आदत पड़ती जा रही थी। जिस दिन बाबा के बचपन के मित्र
सुबह-सुबह हमारे घर आए थे, बाबा को बुआ के घर वाले शहर चिंचोली ले जाने, उसी
दिन दूधवाले से खरीदा गया आधा लिटर दूध, चूल्हे पर रखा रह गया था और उफन-उफन
कर पूरा बिखर गया था। मैं गाढ़ी नींद से उठ कर बैठ गया था, क्योंकि आई की
पीड़ा भरी तड़प वाली आवाज मेरे कान में पड़ी थी, इतने में दीदी आई के पास
दौड़ी हुई आई थी और आई को डाँटते हुए बोली थी, "आई, सुबह-सुबह कैसे बोल रही
हो, अभी बाबा को जरूरी काम से बाहर जाना है और तुम? अरे दूध ही तो गिरा है, एक
दिन प्रकाश को नहीं मिलेगा पीने को... और क्या होगा? काली के जाने के बाद उसको
तो दूध की वैसी आदत भी नहीं।"
दीदी ने जान-बूझकर, यह बात रोज वाली अपनी आवाज से ज्यादा जोर की आवाज से
ज्यादा जोर की आवाज में कहीं थी, क्योंकि यह उसका मुझे इशारा करने का एक तरीका
था, जिससे मैं उठते ही रोज की तरह दूध की माँग न कर बैठूँ और आई को कम से कम
नहीं होने या नहीं दे पाने के अनेक दुखों में से एक से बचा लूँ। मैं दीदी की
इस तरह वाली इशारे की भाषा को खूब समझने लगा था, क्योंकि दीदी घर के कामों से
फुर्सत पा अब मुझे पढ़ाने का काम भी करने लगी थी। पढ़ाने के दौरान मुझे वह कई
तरह की बातें सिखाती जाती थी और उस वक्त उसका चेहरा अजीब सी चमक से भरा उठता
था। जब वह मेरी आँखों में आँखें डाल कहती थी, तो, मैं उससे आँख नहीं मिला पाता
था और कह उठता था, "जो तू बोलेगी, वही करूँगा।" उस वक्त मेरा जी करता था, मैं
उसके पैरों में अपना सिर रखकर वैसे ही रोने लगूँ, जैसे आई मंदिर के देवा के
चरणों में अपना सिर रखकर रोती थी और कहती जाती थी, "सब ठीक कर दे देवा, अब और
कितनी परीक्षा लेगा?"
बाबा जब, अपने बचपन के मित्रों के साथ चिंचोली जाकर लौटे थे, तो उत्साह से भरे
हुए थे। घर आने से पहले उन्होंने चिंचोली के बाजार से हमारे लिए, नमकीन और
मिठाई खरीदी थी। उसे हमारे बीच बाँटते हुए वे अपनी खाँसी के बावजूद चहक कर
बोले थे, "धनंजय पाटिल - वही, तुम्हारी बुआ के रिश्ते वाले ने पचास हजार का
वादा किया है। अभी दस हजार की मदद भी की है। अब बोलो तो खेत बचा भी कितना है
अपना? उतने के लिए इतनी मदद भी बड़ी है। कम से कम बीज खरीदने की हिम्मत तो आई
है, बाद में खाद का इंतजाम करेंगे। अब अगले साल की तैयारी में लग जाना है।
पिछला नुकसान सोच-सोच कर हड्डी नहीं गलानी है।" जब वह यह सब कह रहे थे तो आई
ने उन्हें कुछ याद दिलाने के लिए टोकना चाहा था, "सरकारी...?" तो उन्होंने आई
की बात बीच में ही काट कर कहा था, "धनंजय पाटिल भरोसे का आदमी है, सभी मित्रों
की यही राय है। एक राय है यह। सब यही कर रहे हैं, हम सब कापुस उगाएँगे।"
दीदी को न जाने क्यों उस क्षण बाबा पे बहुत सारा लाड़ उमड़ आया। वह बाबा की
सिमट गई छाती में पुरानी चौड़ाई तलाश कर उनके गले लग गई और लगभग रुआँसी आवाज
में बोली, "बाबा इन पैसों में से कुछ बचा कर एक बार खाँसी की दवा करा लो,"
बाबा मुस्कुरा दिए थे और दीदी आई के कान के पास जाकर बोली थी "देखा अँगूठी का
कमाल, बाबा इतना बड़ा काम कर आए और तुम बिखर गए दूध की शंका लिए रोती थी।" उस
दिन हमारे घर में धैर्य और निश्चिंतता के विशाल पक्षी ने अपने पंख पसार दिए थे
और दीदी और मैं उस पक्षी के पंखों पर चढ़ उड़ने लगे थे। मगर वही अँगूठी, जिसे
आई और दीदी हमारे कठिन दिनों का रक्षा कवच मान रहे थे, एक दोपहर आई को अपने
दाएँ हाथ की चौथी उँगली में नजर नहीं आई। न जाने कब, किसी काम को करते हुए वह
आई की उँगली से फिसल गई थी।
हमें तो तब पता चला, जब हैरान सी दिखती आई, बाबा को खिला पिला बाजार भेज, हमें
भी भाखरी और चटनी परोस खुद खाने बैठी। दीदी और मैं उस वक्त नागपुर शहर की
बातों में लगे हुए थे, कैसे हमें बड़े शहर पसंद नहीं, कैसे हमें इतनी खुली
जगहों की आदत है, और कैसे हम बड़े शहर में जाने पर खो जाने जितने गॅवार अभी भी
बने हुए हैं। ही.ही. ही, दीदी तू भी, अभी भी खो जाएगी, चिंचोली में रहने के
बाद भी, हाँ रे, दीदी हँसी थी- चिंचोली कोई नागपुर थोड़ी है,? तभी आई की धीमी
सिसकियाँ हमें सुनाई पड़ी और खाते-खाते रोने से भाखरी उसके गले में अटक गई। वह
अब जोर-जोर से खाँसने लगी थी, "अब क्या होगा? आहा... अहा हा, अब में क्या
करूँ?'
"क्या हुआ आई?" हम चौंक गए थे और उसे पानी पिलाने लगे थे। "मैं कैसे इतनी
लापरवाह हो गई?" पता नहीं ज्यादा तोड़ देने वाली खबर क्या थी? आई की लापरवाही
की सूचना या रक्षा कवच के खो जाने की दहशत? हम तुरंत चक्करघिन्नी की तरह
नाच-नाच, आई की अँगूठी ढूँढ़ने में लग गए थे, मगर हमें अँगूठी नहीं मिली थी। हम
थक कर, अपनी हार से परास्त सो गए थे और उस रात जब बाबा, घर लौट कर आए थे तो
उन्हें पता भी नहीं चल पाया था कि उनकी सुरक्षा के लिए किया गया सबसे महँगा
उपाय अब आई के हाथ में नहीं था। जल्द ही कापुस की बुआई के दिन आ गए और दीदी ने
आई को सारी शंका दबा कर बाबा की हिम्मत बढ़ाने को कहा। गर्मियों के उन दिनों
में दीदी और मैंने भी बाबा की खेत में खूब मदद की और बाद में भी वहाँ जा जाकर
घंटों डेरा डाले कापुस के पौधों के बढ़ने का इंतजार करने लगे, जैसे हमारे वहाँ
बैठने से कापुस के पौधे अपने समय से पहले ही बढ़ जाएँगे।
जब बारिश आने के दिन आए तो बाबा फिर उत्साहित हो खाद खरीदने का मन बनाते हुए
चिंचोली गए। उस दिन जब दीदी और मैं, अपने बढ़ते पौधों को देखने खेत गए तो
देखा, खेत की बाँध पर किसी ने नीबू-मिर्च लाल कुकुम लगा कर फेंक दिया था। दीदी
ने मुझे उस फेंकी हुई चीज पर पैर रखने से मना कर दिया था और हम बिना खेत घूमे
लौट आए थे। उसके बाद दीदी मंदिर गई थी और खेत की बाँध पर पड़ी बुरी चीज की
बुरी शक्ति को खत्म करने की प्रार्थना करने लगी थी। उसी दिन जब बाबा घर लौटे
थे, तो उनकी हालत देख हम घबरा गए थे। उनकी आँखे लाल थीं, खाँसी बढ़ी हुई थी और
वे धीरे-धीरे चलते हुए अपनी चारपाई पर पड़ गए थे। हमारे बहुत पूछने पर
उन्होंने बताया था। "चिंता की कोई बात नहीं, थकान ज्यादा हो गई है।" इसपे दीदी
ने उनपर लाड़ से गुस्सा कर कहा था "कहा था न, डाक्टर को दिखा दो।'' "दिखाया
था" वो बड़ी मुश्किल से हॉफते हुए बोले थे, "कह रहा है अब नागपुर दिखाओ।"
पीले रंग के धामण साँप को अपनी चारपाई पर गुडी मुड़ी सोते देख आया था। बहुत
गाँव वाले हमारे यहाँ जमा हो गए थे और कहने लगे थे, "अरे ये तो देवा का
आशीर्वाद हो गया, अब देखना कितने चटपट दिन सुधरते तुम्हारे," मगर उसी के बाद
बाबा काली को दूसरे गाँव बेच आए थे और काली के रहने वाली जगह एकदम खाली हो गई
थी। उस दिन साँप को इतने पास से देखने के बाद दीदी और मेरा खून हमारे भीतर ही
जम गया था। और दीदी बोली थी, "प्रकाश, जब बहुत डर लगता है, तो ऐसे ही खून जम
जाता है। एकदम मर गए हों जैसा।" बाबा जिस दिन अपने बचपन के मित्र दत्ता पाटिल
के साथ नागपुर जाने वाली बस में बैठे थे, ठीक उसी दिन दोपहर में दीदी, आई को
बिना बताए गाँव वाली अपनी सहेली से मिलने चल दी थी। और जब वह वापस आई तो उसका
चेहरा चिंता से लाल हो रहा था।
आई उसे देखते ही चिल्लाने लगी थी, "क्या? क्या हुआ?" "आई," दीदी आई को जमीन पर
अपने पास बिठाते हुए बोली, "आई वो जो नीले रंग की मेरी पंजाबी ड्रेस है न,
उसका दुपट्टा सुबह से नहीं मिल रहा था। मुझे लगा, कहीं गलती से मेरी सहेली तो
नहीं ले गई। मैं वही ढूँढ़ने उसके घर निकल गई थी। आई, मगर दुपट्टा उसके पास
नहीं था। वो तो... वो तो, उसके घर जाने वाले रास्ते पे जो सूखा कुआँ पड़ता है
न, जहाँ बरगद का पेड़ है, वहीं, वहीं आई वो पेड़ पर झूल रहा था। उसमें किसी ने
बाजार में बिकने वाली पानी की बोतल को टाँग फंदा कस दिया है। ये कैसी बात हुई
आई? मेरा दुपट्टा वहाँ कौन ले गया? "इसका मतलब क्या हुआ आई?" "हैं" आई सिर पर
हाथ रखे गिरने सी दिखी, "हे... देवा..., अब ये किसने क्या कर दिया, अरे मेरी
बेटी क्या देख कर आ रही है? अब क्या होगा?" दीदी और आई को एक दूसरे को समझाते
हुए वहीं बैठा छोड़ मैं दीदी की बताई वाली जगह पर गया था, और मुझे वहीं बरगद
के पेड़ की एक डाल पर दीदी के दुपट्टे से झूलती वह बोतल नजर आई थी। बोतल को
बहुत बार देखने पर मुझे बोतल के अंदर किसी आदमी का चेहरा दिखाई देने लगा था।
मैं बहुत काँपते हुए तेजी से घर भाग आया था।
उस दिन देर रात, दत्ता पाटिल नागपुर से अकेले लौटे थे और हमें खबर दी थी,
"तुम्हारे बाबा, कल आएँगे, डाक्टर ने उन्हें अस्पताल में भर्ती कर लिया है,
जाँच वगैरह करना है।" जब अगले दिन भी बाबा नहीं लौटे तो दीदी मुझे ले दत्ता
पाटिल के घर गई और उनसे बोली, "काका, अस्पताल का पता दो, हम बाबा को देखने
जाएँगे।' "ओहो," दत्ता पाटिल ने प्यार से मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, "कल
तक रुक कल तक वो नहीं आएगा, तो मैं तुम लोगों को लेकर जाऊँगा।" हमने और दो दिन
इंतजार किया और जब बाबा फिर भी नहीं आए तो हम दत्ता पाटिल के साथ उनका हाल
लेने नागपुर चल दिए। अस्पताल के मरीजों की सूची में बाबा का नाम दर्ज था। मगर
हमें कोई नहीं बता पाया कि बाबा कहाँ थे। कोई यह भी नहीं बता पा रहा था कि
बाबा पलंग पर पिछले चार दिनों से थे भी या नहीं। हमने उनका पहले पहल दाखिला कर
इलाज करने वाले डाक्टर से भी पूछा, मगर वह उतना ही बता पाया जितना हमें पता
था।
दिन भर अस्पताल में इंतजार करने के बाद, गाँव जाने वाली, शाम की आखिरी बस में
जब हम बैठे तो मुझसे रहा नहीं गया। मैं दीदी के कंधे पर झुक फफक पड़ा था,
"बाबा कहाँ गए दीदी?" दीदी कुछ नहीं बोली थी, बस की खिड़की के बाहर न जाने
क्या देखती रही थी। आँख गड़ाए हुए। बाबा को बहुत अच्छी तरह जानने वाले, बाबा
के बचपन के मित्र दत्ता पाटिल ने उदास होकर कहा था, "दुख मत कर बेटा मैं उसे
खूब समझता हूँ लौट आएगा, कहीं चला गया होगा। जो फिर भी नहीं लौटेगा तो हम आके
दुबारा ढूँढ़ेंगे।" फिर दो दिन, फिर दो दिन बाद, और फिर दो दिन बाद भी जब बाबा
नहीं लौटे थे तो आई ने ही हमें धीरज रखने को कहा था और हमने नागपुर जाना छोड़
दिया था।
गाँववालों ने थाने में रिपोर्ट लिखवाने को कहा तो बाबा के बचपन के तीनों
मित्रों ने थाने में रिपोर्ट लिखाई थी, हीरामन पाटिल, वल्द रामनाथ पाटिल उम्र
45 वर्ष गाँव इच्छापुर, दिनांक 10 अगस्त, 2005 से नागपुर जनरल अस्पताल से
लापता। बाबा की एक फोटो भी बाबा के मित्र हमसे माँगकर ले गए थे, जो उन्होंने
थाने में जमा करवा दी। बाबा के लापता हो जाने के कुछ ही दिनों बाद दिवाकर
पंडित के कहने पर आई को पहनाई गई मूँगा जड़ी सोने की खोई हुई अँगूठी मिल गई।
आई के कपड़े के बक्से के पीछे से मैंने ही उसे ढूँढ़ा था। ढूँढ़ने तो मैं अपनी
गोटियाँ गया था, मगर जब वहाँ पहुँचा तो देखा, बक्से के पीछे वही अँगूठी पड़ी
चमक रही है। बाबा के जाने के इतने ही दिनों में आई के माथे पर कितने नए निशान
बन गए थे। वह बहुत दुबली भी हो गई थी। वह जब चलती, उठती, बैठती थी तो उसकी
हड्डियाँ चटाक की आवाज करती थीं। लगता था सब एक साथ टूट रही हों।
मेरी आवाज सुन आई उन्हीं टूटने वाली आवाजों के साथ मेरे पास आई और चिल्लाई
जैसे मैं कहीं बहुत दूर हूँ उससे, मैंने जब जीत से भर आई की हथेली में अँगूठी
रखी तो पानी से भरी उसकी आँखों में पत्थर उछाले जाने जैसी खुशी कौंधी, मगर
दीदी उसके पास आ, उसका कंधा थामे चुप बनी रही। "दीदी, अँगूठी...।" मैं खुशी
में चिल्ला रहा था, नाच रहा था, मगर दीदी तब भी चुपचाप रही। बहुत दिनों बाद
दीदी ने अँगूठी मिलने के बावजूद खुश नहीं हाने का राज खोला था, "प्रकाश, मैं
क्या खुश होती रे, दिवाकर पंडित ने तो बहुत पहले ही मुझे बता दिया था, सोना
खोना और पाना दोनों अच्छा नहीं होता है।" दीदी ने ठीक कहा था शायद क्योंकि आई
ने सब कुछ ठीक हो जाने के लालच में बिना दिवाकर पंडित से उपाय पूछे, हड़बड़ाकर
अँगूठी मिलने के तुरंत बाद ही पहन ली थी और कहती गई थी, "देवा, अब सब ठीक कर
दी।" मगर कुछ भी ठीक नहीं हुआ।
अँगूठी मिलने के तुरंत बाद हमारे घर का पिछला हिस्सा जहाँ काली रहती थी एक दिन
अचानक ही धसक गया। कोई आँधी तूफान भी नहीं आया था उस दिन। खेत में कपास
खड़ा-खड़ा सूख गया और उसकी डंठल सूखी टहनी जैसी कड़ी हो गई। बारिश कम आना इसकी
वजह है, दत्ता पाटिल ने बताया था। इधर बुआ भी दो तीन बार धनंजय पाटिल का
संदेशा पहुँचाने आई थी और रो रो कर वापस लौटी थी, "देखो इधर दादा (भाई) नहीं
मिल रहा, उधर धनंजय पाटिल की दादागिरी।" इन सारी उलझाने वाली घटनाओं के बीच इन
दिनों मैं एक सपना देखने लगा हूँ। रोज तो नहीं, मगर कभी कभी ही। मैं अपने सपने
में देखता हूँ कि बाबा मर गए हैं। उन्हें तरह-तरह से आँख बंद किए लेटा हुआ मैं
देखता हूँ। चार पाँच बार उसी सपने को देखने की बात, जब मैंने दीदी को बताई तो
बड़े दिनों बाद वो थोड़ा खुश होकर बोली थी, "प्रकाश, ये तो बड़ा अच्छा है रे,
बहुत-बहुत अच्छा, मैंने एक बार नागपुर के बड़े अखबार के एक पन्ने पर पढ़ा था
"जब हम सपने में किसी को मरा हुआ देखते हैं, तो उल्टा होता है। जानता है, जिसे
हम मरा हुआ देखते हैं, असली में इससे उसकी उम्र बढ़ जाती है।"
बाबा आज तक लापता हैं।